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भारत की राजनीति और बाबा साहब भीम राव आंबेडकर

भारत की राजनीति और बाबा साहब भीम राव आंबेडकर

देश में हो रहे राजनीतिक सग्राम में सभी राजनीतिक पार्टी शामिल हो गयी है बीजेपी हो या कांग्रेस कोई भी इस मुद्दे पर पीछे नहीं रहना चाहते है। भारत की राजनीति में एक बार फिर चर्चा में है भीमराव रामजी अंबेडकर। जिनको लेकर एक बार फिर राजनीति में भूचाल आ गया है। भारत में कोई भी राजनीतिक पार्टी हो वो अंबेडकर के पीछे एक मजबूत वोट बैंक को नहीं खोना चाहती इसलिए इस मुद्दे को दोनों ही पार्टी भुनाने में लगी है

 

आखिर कौन थे डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर

उनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को, मध्य प्रदेश के महू में, महार जाति में हुआ था। अंबेडकर शुरूआत से ही एक होनहार छात्र थे। अंबेडकर की लाइफ में उनके शिक्षक कृष्ण केशव आम्बेडकर का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे अंबेडकर से इतने प्रभावित हुये की उन्होंने अंबेडकर को अपना सरनेम भी दे दिया।

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर की शैक्षणिक यात्रा मुंबई के एल्फिंस्टन हाई स्कूल से प्रारम्भ हुई, उन्होंने शैक्षणिक रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, जो उन्हें एल्फिंस्टन कॉलेज से न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय तक ले गया। कोलंबिया विश्वविद्यालय उनके जीवन के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ, वहां उन्होनें समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के कार्यों के साथ-साथ स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों से अवगत हुए, जो बाद में उनके दृष्टिकोण का आधार बन गए।

 

वर्ष 1916 में, डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अपनी पढ़ाई जारी रखने और ग्रेज इन में कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए।

 

पहला चुनाव हार गए थे आंबेडकर

बता दें कि पहला लोकसभा चुनाव अक्टूबर 1951 और फरवरी 1952 के बीच हुआ था, जिसमें अंबेडकर ने बॉम्बे नॉर्थ सेंट्रल से चुनाव लड़ा था। अशोक मेहता के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी ने उनका समर्थन किया था। इस सीट से अंबेडकर कांग्रेस के नारायण सदोबा काजरोलकर से 15,000 वोटों से हार गए।

 

1954 में दूसरी बार लड़ा था चुनाव

1954 में आंबेडकर ने दूसरा चुनाव महाराष्ट्र के भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से लड़ा था। इस बार वे कांग्रेस उम्मीदवार से करीब 8,500 वोटों से हार गए । इस चुनावी कैंपेन के दौरान आंबेडकर ने नेहरू के नेतृत्व पर सीधा हमला किया था, और उनकी विदेश नीति की आलोचना की थी।

 

‘आंबेडकर: ए लाइफ' में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने लिखा कि 1952 के आम चुनाव आंबेडकर के लिए अच्छे नहीं रहे। आंशिक रूप से ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने देश के राष्ट्रवादी आंदोलन के राजनीतिक अवतार कांग्रेस पार्टी की मतदाताओं की कल्पनाओं पर पकड़ को कम करके आंका और आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि आंबेडकर को यह एहसास नहीं हुआ कि आम जनता की नज़र में उनके कुछ पद कितने अलोकप्रिय थे।

 

 

 

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