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Dr Manmohan Singh: राजनीति की टेढ़ी डगर पर सीधे-साधे मनमोहन

Dr Manmohan Singh: राजनीति की टेढ़ी डगर पर सीधे-साधे मनमोहन

आज देश डॉ मनमोहन सिंह को याद कर रहा है। कल शाम जब डॉ साहब ने अंतिम सांस ली तो राजनीतिक हलकों के अलावा पुरे देश में शोक की लहर दौड़ गयी। डॉ साहब की छवि जब भी याद आती है तब एक ऐसा व्यक्तित्व सामने आता है जिसमे सादगी, सौम्यता और निस्वार्थ की भावना कूट-कूट के भरी हो । अपने देश के लिए उनकी भावना इस तरह की थी जिसके चलते उन्होंने अपनी सरकार को भी दाव पर लगा दिया था।

 

आज हम एक ऐसी ही कहानी बताने जा रहे है जब डॉ मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दाव पर लगा दिया था। बात उस समय की है जब भारत सरकार अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते को आगे बढ़ाने की कोशिश रही थी। इस समझौते ने भारत को "परमाणु बहिष्कृत" से "जिम्मेदार परमाणु शक्ति" के रूप में मान्यता दिलाई।


परमाणु समझौता: एक बड़ी उपलब्धि

2008 का भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर समझौता भारतीय इतिहास में ऊर्जा सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। यह समझौता भारत को अपनी परमाणु ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका से सहयोग प्राप्त करने का रास्ता खोलता है, जो कि दशकों से प्रतिबंधित था। हालांकि, यह समझौता जितना कूटनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था, उतना ही घरेलू राजनीति में विवादास्पद भी रहा । मनमोहन सिंह ने इस समझौते के लिए विरोध का सामना किया। वामपंथी दलों ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई और समर्थन वापस ले लिया। लेकिन राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के सहयोग और समाजवादी पार्टी के बदले रुख ने सरकार को विश्वास प्रस्ताव जीतने में मदद की। यह समझौता भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने और भारत के ऊर्जा क्षेत्र को नई तकनीक देने का द्वार बना।

 

क्या था यह समझौता ?

यह समझौता भारत और अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और ईंधन के आदान-प्रदान का एक समझौता था। इसके तहत, भारत को अपने नागरिक परमाणु कार्यक्रम के लिए तकनीकी सहायता और परमाणु ईंधन की आपूर्ति की अनुमति दी गई, जबकि भारत ने अपने परमाणु प्रतिष्ठानों को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी के तहत रखने का वादा किया।

भारत ने 1974 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद से परमाणु आपूर्ति समूह (NSG) की पाबंदियों का सामना किया था। यह समझौता NSG से भारत के लिए विशेष छूट दिलाने का मार्ग प्रशस्त करता था। इसके तहत भारत ने अपने सैन्य और नागरिक परमाणु कार्यक्रम को अलग-अलग करने और परमाणु अप्रसार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई।

 

भारत में राजनीतिक विवाद

जब इस समझौते को अंजाम देने की बात आई, तो भारत की घरेलू राजनीति में बड़ा बवाल खड़ा हो गया। सरकार में साथ दे रहे वामपंथी दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार अल्पमत में आ गई।

 

मनमोहन सिंह का नेतृत्व और दृढ़ता

इस पूरे प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नेतृत्व और उनकी दृढ़ता प्रशंसनीय रही। उन्होंने अमेरिका के साथ इस समझौते को भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिए आवश्यक बताया और इसे "भारत की ऊर्जा स्वतंत्रता के लिए मील का पत्थर" करार दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह समझौता भारत की रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं करेगा। संसद में विश्वास मत जीतने के बाद, मनमोहन सिंह ने न केवल राजनीतिक संकट को टाला, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को भी मजबूत किया। अमेरिका के साथ यह समझौता उनके कार्यकाल की प्रमुख उपलब्धियों में गिना जाता है।

 

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