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दीपावली पर कुम्हार के चाक की रफ़्तार हुई तेज, बढ़ी मिट्टी के दीपकों की माँग

दीपावली पर कुम्हार के चाक की रफ़्तार हुई तेज, बढ़ी मिट्टी के दीपकों की माँग

जयपुर : दीपों का त्योहार दीपावली पुरे भारतवर्ष बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है और और यह हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार है। दीपावली आते ही कुम्हारों के चाक की रफ़्तार तेज हो जाती है। हर एक के घर को रोशनी से जगमग करने के लिए कुम्हार दिवाली से कई दिनों पहले ही दिन-रात एक करके दीये बनाना शुरू कर देते हैं। हालांकि आधुनिक युग में लोग बिजली सहित अन्य तरीकों से भी घरों को दीपावली पर सजाते हैं, लेकिन मिट्टी के दीयों से घरों को रोशन करने की परंपरा काफी पुरानी है और यही वजह है कि लोग बिजली की लड़ियों के साथ ही दीयों से भी अपने घरों को जगमग जरूर करते हैं। ऐसे में दीपावली की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। देशभर में मिट्टी के कलाकार (कुम्हार) मिट्टी के दीये बनाने में जुटे हुए हैं। पिछले साल की तुलना में इस साल दीये बनाने के ज्यादा आर्डर मिले रहे हैं। जिस प्रकार से राम मंदिर में मूर्ति की स्थापना के समय मिट्टी के दीपकों की मांग बढ़ी थी, वैसे ही दीपावली पर भी अयोध्या में दीपकों की मांग फिर से बढ़ रही है।


दीपक किस प्रकार होते है तैयार 


मिट्टी के दीपक तैयार करने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत लगती है। सबसे पहले तालाब से चिकनी मिट्टी खोदकर लाई जाती है। उसके बाद चिकनी मिट्टी को बारीक पीसकर और छानकर उसे भिगोया जाता है। जब मिट्टी अच्छे से भीग जाती है, तब उसे छोटे-छोटे गोल आकार में अलग कर लिया जाता है, जिन्हे पिंडे कहा जाता है। अब एक-एक कर चाक पर रखकर कारीगर अपने हुनर से अलग-अलग आकार और डिजाइन के दीपक तैयार करता है। दीपक को पहले धूप में सुखाते हैं उसके बाद उपलों की आग में उन्हें पकाते हैं। पकाने से आकर्षक डिजाइन में बने ये दीये मजबूत हो जाते हैं और उसके बाद बाजार में बिकने आ जाते हैं। दीपावली के आते ही मिट्टी के दीपकों की मांग बाजार में तेजी से बढ़ जाती है. प्राचीन काल से दीपावली पर हर घर में मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा रही है, वहीं कई क्षेत्रों में दीपावली से एक दिन पहले यानि छोटी दीपावली को कच्चे (बिना पके) दीपक भी जलाए जाते हैं।

 

मिट्टी के दीपक का महत्व, जलाने की परंपरा कब से शुरू हुई

मिट्टी का दीपक वर्तमान का प्रतीक माना गया है। जबकि, उसमें जलने वाली लौ भूतकाल का प्रतीक होती है। जब हम रुई की बत्ती डालकर दीप प्रज्जवलित करते हैं। तो वह आकाश, स्वर्ग और भविष्यकाल का प्रतिनिधित्व करती है। दीपक की रोशनी शांति का प्रतीक भी मानी जाती है। हिंदू धर्म में मिट्टी के दीये को बहुत ही शुभ माना जाता है। पूजा पाठ से लेकर जन्म - मरण तक के सारे विधि- विधान में मिट्टी का दीपक ही जलाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मिट्टी दीये जलाने की परंपरा ऋग्वेदिक काल में ही आरंभ हो गई थी। ऋग्वेद में भी मिट्टी के दीये इस बात का जिक्र है, कि दीपक में देवी- देवताओं की ऊर्जा का वास होता है। ऋग्वेद काल में यज्ञ के लिए अग्नि प्रज्वलित की जाती थी। तब से अलग- अलग रूप में अग्नि जलाने की परंपरा पूजा-पाठ और शादी ब्याह, तीज त्योहारों के साथ चलती आ रही है। त्रेतायुग में भी भगवान श्री राम के अयोध्या लौटने पर अयोध्या वासियों ने घी के दीपक जलाए थे। द्वापर युग में कृष्ण के नरकासुर राक्षस वध के बाद वहां के लोगो ने दीपक जलाकर जीत की खुशी मनाई थी। तब से लेकर आज तक हर त्योहार, व्रत, और पूजा पाठ, और खास त्यौहार दीपावली में दीपक जलाया जाता हैं। वेदों और उपनिषदों में गाय के घी से दीपक जलाने के विधान को बताया गया है। पंचतत्व का प्रतीक मिट्टी का दीपक पानी में भिगोकर बनाया जाता है। जो भूमि और जल तत्व का प्रतीक होता है। हवा में सुखाया जाता है जो आकाश और वायु का प्रतीक है। आग में तापाकर बनाया जाता है। जो अग्नि का प्रतीक है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पूजा के समय मिट्टी का दीपक जलाने से घर में सुख, समृद्धि आती है।


आधुनिकता में मिट्टी के दीपको की जगह ले रही चाइनीज लाइट


हालांकि आधुनिक चकाचौंध में मिट्टी के दीये बनाने की ये कला खोती जा रही है। लेकिन इस परंपरा जिंदा रखने के लिए गांवों में अब भी काम कर रहे कुम्हारों के मोहल्ले, गलियां और चौक मिट्टी के दीयों से अटे पड़े हैं। पुरुष हों या महिलाएं, सभी दीये बनाने, उन्हें बाहर भेजने के काम में जुटे हुए हैं। मिट्टी के दीपकों की बढ़ती मांग को देखते हुए कुम्हारों के मोहल्ले में रात-दिन चाक का पहिया रफ्तार पकड़े हुए है। कलाकारों का कहना है कि पिछले समय से मिट्टी के दीपकों की मांग वापस बढ़ी है। कलाकारों ने आमजन से दिवाली पर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी उपयोग में लेने की अपील भी की। वही कारीगरों का कहना है कि दीपावली के सीजन में ही काम आता है, इसके बाद हमें काम नहीं मिलता। केवल गर्मी के दिनों में मटकी बनाते हैं। लगभग 10-12 साल पहले जिस प्रकार से दीपक बिकते थे, वो अब नहीं बिकते। इसका सबसे बड़ा कारण बिजली से रोशनी करने वाली चाइनीज लाइट हैं, जो कीमत में भी सस्ती होती हैं और आकर्षक रोशनी भी करती हैं। लेकिन क्योंकि दीपावली का त्यौहार हमारी परंपराओं और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इसलिए दिवाली का असली आनंद तो स्वदेशी दीये जलाने में ही है।

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